Monday, November 24, 2008

बस फर्क सिर्फ़ इतना सा था




जीने के लिए काम तो सभी को करना   पड़ता है
मैंने भी शुरू किया और उसे भी शुरू करना पड़ा है
बस फर्क सिर्फ़ इतना सा था







मुझ पर जिंदगी  का बोझ २३-२४ की उम्र में आया
जबकि उसपर ८ वर्ष  में पड़ा  जिंदगी के बोझ का  साया


कडकडाती ठण्ड में मै काम के लिए सुबह निकला
रास्ते में उसे भी काम पर जाते देखा


बस फर्क सिर्फ़ इतना सा था
मै स्वेटर मफलर लगाए गाड़ी में जा रहा था
वो नंगे पैर अपना कचरे का बोरा उठाये ठंडी सड़क पर दौड़ा चला जा रहा था


खैर मै अपने कार्य स्थल यथा समय पहुँचा
वो  भी अपने आफिस  पहुँच गया

बस फर्क सिफ इतना सा था
मेरा कार्यास्थल वातानुकूलित आरामदायक कुर्सी वाला था
और उसका आफिस  कचरे के ढेर पर बना था


दोपहर का वक्त हुआ और मै खाने के लिए भोजनालय पहुँचा
भूक से व्यथित वो भी भोजनालय पहुँचा


बस फर्क सिर्फ़ इतना सा था
मै भोजनालय के अन्दर आराम से खाने का आर्डर दे रहा था
और वो भोजानालय के बाहर  आतुर आँखों से जूठी थालिओं में खाने के टुकड़े खोज रहा था


खैर आफिस का काम ख़त्म कर मै खुशी खुशी निकला
वीकएंड के दो दिनों में क्या क्या करूँ सोचते हुए घर के लिए चला


राह में देखा तो वो भी अपना कचरे का बोरा उठाये चला आ रहा था
क्या करोगे तुम वीकएंड पर, उसे देखा तो ऐसा पूछ बैठा


उसने मुस्कुराते हुए कहा “साहब हमारा वीकएंड तोह लाइफ एंड होने पर ही अता है”

उसका जवाब मुझे एक बड़े सवाल की प्रति ध्वनि लगा
खैर बिना कुछ कहे मै अपने आंसू रोक कर वापस मुड़ने लगा


बस फर्क सिर्फ़ इतना सा था
इस बार वह सवाल पूछ बैठा “साहब ये इतना सा फर्क मेरी जिंदगी में क्यों था”
मेरे पास इस सवाल का कोई उत्तर नहीं था




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