Monday, August 30, 2010

जाने वो कब और कहाँ से आएँगे;

जाने वो कब और कहाँ से आएँगे 
जो साबरमती के  तट पर फिर से अपना आश्रम बनाएँगे 
जिसके आश्रम में गरीब अमीर सभी सामान आदर पाएँगे 
जिसके चरखे के उस सूत से फिर गरीबों को तन ढकने लायक कपडे मिल जाएँगे
जाने वो कब और कहाँ से आएँगे 

जाने वो कब और कहाँ से आएँगे 
जो अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध जाकर बड़े अफसर की गद्दी हँसते हँसते छोड़ जाएँगे
जिनकी सेना के लोग रसद ख़त्म होने पर भी खली पेट बढ़ते जाएँगे
और केवल यही गुनगुनाएँगे तुम हमें खून दो हम तुम्हे आज़ादी दे जाएँगे
जाने वो कब और कहाँ से आएँगे

जाने वो कब और कहाँ से आएँगे
जो कुछ हद तक निज स्वार्थ छोड़ मानवता के लिए समय दे पाएँगे
जिन्हें हम गाँधी, सुभाष, भगत सिंह न बुला पाएं तो न सही 
कम से कम उन्हें हम  सच्चा  इंसान  तो कह पाएंगे 
जाने वो कब और कहाँ से आएँगे

जाने वो कब और कहाँ से आएँगे
जाने क्यूँ लगता है  शायद वो नहीं आएँगे
आएँगे कहाँ से यहाँ तो हर घर यही सोचता है
वो कहीं से भी आ जाएं पर हमारे घर से नहीं आएँगे
जाने वो कब और कहाँ से आएँगे




Friday, August 27, 2010

इतिहास ही किताब

इतिहास से आज मै पूछ बैठा;
उपरवाले ने हर एक को वही हाथ वही पैर दिए;
वही थोड़ी सी बुद्धि वही चलने के सलीके दिए ;
वही कुछ कर गुजरने के बारूद के  ढेर भी मन में भर दिए ;
फिर भी तुम्हारी जुबां पर कुछ ही लोगों का नाम पता क्यूँ होता है ;
क्यूँ चंद नामों का ही नाम तुम्हारी किताबों में बयां होता है ;
तुम क्यूँ  हर नाम का जोखा नहीं बताते; 
ऐसा पछ्पात करते क्यूँ नहीं सकुचाते; 
इतिहास से आज मै पूछ बैठा.

इतिहास थोडा मुस्कुराया; 
अपनी नयी किताब एक पन्ना पलट कर फ़रमाया;
कोई शक नहीं वही बुद्धि और कर गुजरने के बारूद के ढेर सभी को  मिलें हैं ;
बस फर्क सिर्फ इतना है कोई उसपर आंसुओं का पानी डालकर गलने देता है;
कोई उम्मीद की एक छोटी सी चिंगारी बनकर सफलता की ज्वाला खडी कर देता है;
दोनों की दास्ताँ बिना पछ्पात मेरे पन्नों में दर्ज होती है; 
बस उम्मीदवाले की चिंगारी उस दास्ताँ को  अमिट बना देती  है ;
और आंसुवाले की दास्ताँ उसके आंसुओं में मिट जाती है;
 इन्ही अमिट और मिटे हुए पन्नो से एक नयी  इतिहास ही किताब बन जाती है.

Friday, August 20, 2010

वो

वो गिरते हैं पर आवाज नहीं होती
वो हारते हैं पर हार की साज़ नहीं होती
जिन्हें खुद पर भरोसा हो
उन राहगीरों  की जीत के आगाज़ के आगे हार की परवाज़ नहीं होती

वो लड़ते हैं पर किस्मत की दरकार नहीं होती 
वो मजबूरी में पड़ते हैं पर झुकने की झंकार नहीं होती
जिन्हें खुद पर भरोसा हो
उन राहगीरों को राह क्या मंजिलों की भी परवाह नहीं होती 

गिरना हारना मुश्किलों में घिर जाना
राह नज़र न आये फिर भी ऐ रही बढ़ते जाना
क्यूंकि जो  राही आखिर तक खुद पर भरोसा रख पाए
उनके गिरने और हारने  के पथ्थरों को ही दुनिया ने काशी और  काबा माना 

Sunday, August 8, 2010

हस्त रेखाएं











अनिश्चितता की मृदंग के बीच मचा है मेरा परिश्तिथियों से संग्राम; 
कभी आल्हाद कभी अंतर्द्वंद हर पल बस  एक नया पैगाम; 
कुछ निराश होकर पूछ बैठा हाथ की रेखाओं से; 
जरा बताओ तो मेरा  भाग्य बंधा है किन सीमाओं से. 

कभी लगता है लक्ष्य बहुत पास है;
कुछ कदम ही चल पाता हूँ और पाता हूँ कि मन फिर उदास है;
कुछ तो कहो हस्त रेखाओं आखिर क्यों ये संत्रास है;
लक्ष्य मिलेगा या भाग्य में हार का ही वास है.

मेरे निराश वचन सुन हस्त रेखाएं बोलीं इतिहास कभी हस्त रेखाओं से नहीं लिखा जाता है; 
भाग्य तो हम कर्महीनो का बताते हैं कर्मठ का भाग्य नहीं लिखा जाता है ;
खुद पे  एतबार रख ऐ राही;
कर्मवीरों क़ी रेखाओं से हाथ नहीं इतिहास लिखा जाता है . 


मन एक जुलाहा

मन एक जुलाहा फंसी डोर सुलझाना, चाहे सिरा मिले न मिले कोशिश से नहीं कतराना, जाने मन ही मन कि जब तक जीवन तब तक उलझनों का तराना फिर भी डोर सुलझ...