जो साबरमती के तट पर फिर से अपना आश्रम बनाएँगे
जिसके आश्रम में गरीब अमीर सभी सामान आदर पाएँगे
जिसके चरखे के उस सूत से फिर गरीबों को तन ढकने लायक कपडे मिल जाएँगे
जाने वो कब और कहाँ से आएँगे
जाने वो कब और कहाँ से आएँगे
जो अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध जाकर बड़े अफसर की गद्दी हँसते हँसते छोड़ जाएँगे
जिनकी सेना के लोग रसद ख़त्म होने पर भी खली पेट बढ़ते जाएँगे
और केवल यही गुनगुनाएँगे तुम हमें खून दो हम तुम्हे आज़ादी दे जाएँगे
जाने वो कब और कहाँ से आएँगे
जाने वो कब और कहाँ से आएँगे
जो कुछ हद तक निज स्वार्थ छोड़ मानवता के लिए समय दे पाएँगे
जिन्हें हम गाँधी, सुभाष, भगत सिंह न बुला पाएं तो न सही
कम से कम उन्हें हम सच्चा इंसान तो कह पाएंगे
जाने वो कब और कहाँ से आएँगे
जाने वो कब और कहाँ से आएँगे
जाने क्यूँ लगता है शायद वो नहीं आएँगे
आएँगे कहाँ से यहाँ तो हर घर यही सोचता है
वो कहीं से भी आ जाएं पर हमारे घर से नहीं आएँगे
जाने वो कब और कहाँ से आएँगे
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