Wednesday, June 16, 2010

जिंदगी की दौड़


परिश्थितियां सदा  किसी के लिए एक सी न थीं न कभी होंगी
जिंदगी की दौड़ में कभी धूप कभी छाँव लगी होंगी 

छाँव के पलों में तो सभी दौड़ जाएँगे 
बात तो तब होगी जब भरी धूप में भी कदम नहीं रुकने पाएँगे
जंग कोई हारता नहीं बस कुछ लोग मैदान जल्दी छोड़ जाते हैं
परिश्थितियों  के लड़खड़ाते हांथों को देखने से पहले हथियार छोड़ जाते हैं

परिश्थितियां सदा  किसी के लिए एक सी न थीं न कभी होंगी
जिंदगी की दौड़ में कभी धूप कभी छाँव लगी होंगी 

क्या लगता है भगत सिंह या मदर टेरेसा कभी मुश्किलों में पड़े नहीं
या आइन्स्टीन की खोजों में असमंजस्य के बादल पड़े नहीं
अरे इंसान क्या राम और यीशु का भी बुरा वक़्त आया
परिस्थितियों ने उनका भी विश्वास आजमाया  

परिश्थितियां सदा  किसी के लिए एक सी न थीं न कभी होंगी
जिंदगी की दौड़ में कभी धूप कभी छाँव लगी होंगी 

उनकी जीत के किस्से इसलिए सुनते हो क्यूंकि वो मुश्किल छड़ों में रुके नहीं
असमंजस्य के घने बादलों तले झुके नहीं
यदि ये सब  जानकर भी तुम  हार मानना चाहते हो तो  मानो
पर फिर ये न कहना की खुद को हराने वाले लोगों के किस्से तुमने सुने नहीं 

परिश्थितियां सदा  किसी के लिए एक सी न थीं न कभी होंगी
जिंदगी की दौड़ में कभी धूप कभी छाँव लगी होंगी 

3 comments:

  1. Hi Sir,

    Very nicely written!!

    Your words describe the essence of struggle in our life in the most simplistic way.

    Keep writing. :)

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