Sunday, May 8, 2011

दूसरा सिरा


जिंदगी के इस मोड़ की कहानी सुनाऊं कैसे 
चरखा भी है धागा भी है फिर भी सपनो की चादर बनाऊं कैसे 
चादर आधी बन ही पायी थी की धागा उलझ गया
उलझा ऐसे जैसे दूसरा सिरा कहीं गुम  हो गया
दूसरा सिरा नहीं मिला फिर चरखा चलाऊं कैसे
आधी चादर फिर से खोल पहला सिरा लाऊं  कैसे
इस उलझे धागे की उलझन में पड़े मन को समझाऊं कैसे 
सपनों की चादर बनाऊं कैसे 

जिंदगी की इस उलझन के दोराहे पर बैठा वो सोच रहा था 
कभी चरखे कभी उलझे धागे को देख रहा था
तभी उस उलझे धागे ने दी पुकार 
जीवन के धागे की नियति है उलझना बार बार
इसकी उलझन पर जीवन का चरखा न रुकने देना मेरे यार
सिरा न मिले दो धागा तोड़ कर नया सिरा बना लो कहीं 
क्यूंकि कोई चादर बिना धागे के टूटे और जुड़े बिना बनती नहीं  
धागे की उलझन को तोड़ चरखा चलाओ दिल  से 
सपनो की चादर बनाने लग जाओ फिर से 



 

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