Tuesday, September 7, 2010

ग़मों की किताब

अपने दुखों से ग़मगीन हो निकल पड़ा बाज़ार में;
सोचा बेच आऊँ ग़मों की ये किताब किसी खुशनुमां  दूकान में;
हर बाज़ार घूमा हर दूकान में पूछा;
बची न कोई गली न कोई कूचा;
 पर नहीं मिला कोई सौदागर; 
जिसके पास हो केवल खुशियाँ बिना किसी फिकर;
राह में मिले कई लोग; 
जो थकते नहीं थे बयाँ  करते अपने दुखों का योग. 

उनके दुखों को सुना तो लगा; 
मेरी तो ग़मों की किताब ही है उनके पास ग़मों  की बड़ी पेटी है; 
खुशियाँ मेरी ज्यादा हैं ग़मों की फेहरीस्त जरा छोटी है;
मै लौट आया अपने घर लिए उस किताब को;
किताब के साथ एक नए जवाब को;
गम को भूल जा प्यारे जरा खोलकर देख खुशियों की पेटी; 
क्यूंकि उपरवाले ने ग़मों  की छोटी सी किताब से साथ खुशी भी तेरे लिए ही है समेटी ;
अब अगर तू ये खुशियों की पेटी को बंद रखकर जीना चाहता है तो जी;
पर बाद में किसी दूकान में ये न पूछना किसी के ग़मों की किताब है मेरी किताब से मोटी. .


 


 

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