Sunday, January 23, 2011

कैसे

सपनो की डगर छोड़ पैसों की दौड़ लगाऊं कैसे;
रेगिस्तान में फिर भी चल दूँ पर किनारों में कश्ती तैराऊं कैसे;
आसमान में उंचा उड़ने का ठाना है तो धरती पर घर बनाऊं कैसे ;
गिरने से नहीं लगता है डर फिर स्थिरता की बैसाखी पर चल जाऊं कैसे ;
कुछ कर गुजरने का खुद  को खुद  से किया वादा है उस वादे  से मुकर  जाऊं  कैसे  ;
आज फिर वही सवाल आ खड़ा हुआ है;
गैरों का  सवाल हों तो जवाब भी दूँ अपनों के सवालों को दौहराउन कैसे ;
सपनो की डगर छोड़ पैसों की दौड़ लगाऊं कैसे.


came back from home today, plausibly the lines above reflect the current state of mind due to discussions which happened last week



No comments:

Post a Comment

मन एक जुलाहा

मन एक जुलाहा फंसी डोर सुलझाना, चाहे सिरा मिले न मिले कोशिश से नहीं कतराना, जाने मन ही मन कि जब तक जीवन तब तक उलझनों का तराना फिर भी डोर सुलझ...