Sunday, November 7, 2010

तो खुद भगवन को भी लाना होगा

अनिश्चितता के पलों का दावं भले ही कितना  गहरा हो; 
चाहे हर ओर बस अँधेरे का पहरा हो; 
फिर भी वहां रुकने या वापस लौट चलने का विचार करना संभव नहीं;
जहाँ राह दिखेगी वहां  कदम बढ़ाना होगा;
जहाँ राह नहीं दिखेगी वहां कदम के साथ राह को भी बनाना होगा;
जिस राह पर कदम चल निकले हैं;
जिन उद्देश्य के लिए वो बढ़ निकलें हैं ;
उसकी मंजिल पहले से बनी  राहों पर बढ़ने से आ जाएं तो सही ;
वर्ना खुद बनाई राह पर कदम फिर बढ़ाना होगा; 
और इन  बढ़ रहे  क़दमों के तले मंजिल को हर हाल में लाना  होगा ;
क्यूंकि लड़ाई अगर केवल निज स्वार्थ की होती;
या हार-जीत की कहानी खुद  तक सीमित होती; 
तो अँधेरा हटने तक कदम न बढ़ाते तो फर्क न पड़ता ;
या शायद डर कर लौट भी जाते तो कोई तर्क न करता;
पर यहाँ सवाल है उस भरोसे का उन शब्दों का;
जिनको पूरा करने के लिए अगर जरूरत पड़ी तो खुद भगवन को भी लाना होगा ;
 

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