अनिश्चितता के पलों का दावं भले ही कितना गहरा हो;
चाहे हर ओर बस अँधेरे का पहरा हो;
फिर भी वहां रुकने या वापस लौट चलने का विचार करना संभव नहीं;
जहाँ राह दिखेगी वहां कदम बढ़ाना होगा;
जहाँ राह नहीं दिखेगी वहां कदम के साथ राह को भी बनाना होगा;
जिस राह पर कदम चल निकले हैं;
जिन उद्देश्य के लिए वो बढ़ निकलें हैं ;
उसकी मंजिल पहले से बनी राहों पर बढ़ने से आ जाएं तो सही ;
वर्ना खुद बनाई राह पर कदम फिर बढ़ाना होगा;
और इन बढ़ रहे क़दमों के तले मंजिल को हर हाल में लाना होगा ;
क्यूंकि लड़ाई अगर केवल निज स्वार्थ की होती;
या हार-जीत की कहानी खुद तक सीमित होती;
तो अँधेरा हटने तक कदम न बढ़ाते तो फर्क न पड़ता ;
या शायद डर कर लौट भी जाते तो कोई तर्क न करता;
पर यहाँ सवाल है उस भरोसे का उन शब्दों का;
जिनको पूरा करने के लिए अगर जरूरत पड़ी तो खुद भगवन को भी लाना होगा ;
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