Sunday, July 4, 2010

कबीर ने नहीं कहा तो क्या मै तो कहता हूँ

कबीर ने नहीं कहा तो क्या  मै तो कहता हूँ
दर्द होता है जब किसान की खेती को भेडिए को खाते पाता हूँ

बुखमरी मिटाने की बड़ी संगोष्ठियों के नाम पर लाखों लुटाए जाते हैं
वहां मेरे किसान के बच्चे फिर भी भूखे रह जाते हैं
बातें तो लोग बड़ी बड़ी करते हैं पर बातों के आगे कुछ  कर नहीं पाते हैं
दिल रोता है तब जब कुछ लोग कुछ करने जाते हैं वो भी अपना हाथ बंधा पाते हैं 

कबीर ने नहीं कहा तो क्या  मै तो कहता हूँ
दर्द थोडा ज्यादा होता है जब किसान  की खेती को  इंसानी  भेडिए को खाते पाता हूँ

सरकारी फाइलों में सारी योजनाएं समाप्त हो जाती हैं
और फिर एक गैर सरकारी संस्था की टीम इम्पेक्ट  असेसमेंट के नाम पर पैसा बनाती है
गरीब बस उनके सवालों का जवाब देकर रह जाता है
दिल रोता है तब  जब सब सवालों के जवाब देने के बाद भी उसके खेत पर पानी नहीं पहुँच पाता है 

कबीर ने नहीं कहा तो क्या मै तो कहता हूँ
दर्द असहनीय हो जाता है जब किसान  की खेती को सरकारी और गैर सरकारी कागजों में ही उगता पाता हूँ 

ये कुछ नया नहीं जो मै कहता हूँ हर चाय की दुकान पर सुनता हूँ 
भगतसिंह , सुभाष  जैसे लोगों के होने पर समाज कितना अच्छा होता है 
पर दिल रोता है तब  जब कोई अपने घर से सुभाष, भेजने पर झिझकता है 
और उम्मीद करता है  पडोसी के घर से ही कोई  सुभाष बनता तो ज्यादा अच्छा होता है 

कबीर ने नहीं कहा तो क्या  मै तो कहता हूँ
दर्द की वेदना का तब  भान ही नहीं रहता जब यह  पढने के बाद भी आँखों में समाज-कर्त्तव्य के भावों को मुर्दा पाता हूँ 

2 comments:

  1. sir, main ye promise karta hun ki jab kuchh karne ke capable ho jaunga, tab zaroor samaaj ke liye kuchh karunga...

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